नादां तेरे शहर को | Desolate Memories of a Mother's Love

नादां तेरे शहर को.....


वीरान कर चले हम

नादां तेरे शहर को

आये थे शहर तेरे

खुशियां बड़ी अजब थी

मिलने की चाह थी ही

अपनों की बात यह थी 

पहुंचे ज़मीं पे तेरे

यह आंख नम बहुत थी

रिश्ता वह खून का जो

होती है राह दिल से

दिल को यही सब कहते

एक भीड़ हर तरफ थी 

अपने सभी यहां थे

यह आंख ढ़ूंढती थी

लेकिन तुम्हें ही नादां

अश्कों को पी गये हम

दुख अपना जी गये हम

बचपन से जिस को सींचा

पल-पल जिसे संवारा

ठोकर लगी जो तुझ को

हर पल तुझे संभाला 

तुम राह सीधी चलना

तालीम ही यही दी

इख्लाक और वफा का

हर दम सबक पढ़ाया 

लेकिन यह वक्त कैसा

अपना नहीं है अपना

रौनक तेरे शहर की

मेरे दुआ की बरकत

तू मां को भूल बैठा

उलझा सही गलत में 

गलती कहां हुई थी 

अक्सर यही मैं सोचूं 

लेकिन ऐ बेटे मेरे

जितना बड़ा है तू जो

जितनी समझ हो तुझ में 

लेकिन वह तेरी जन्नत 

कदमों में है मेरे ही 

उठ अब कदम गये हैं 

गलियों से तेरे मेरे

जन्नत की चाह नहीं थी

देखा आज हम ने ऐसा

दुख को तेरे सजा के

दिल को हम ज़ख्मी करके

अब लौट घर चले हम

मुड़ कर ना पीछे देखा

लेकिन यह वक्त कहता

वीरान कर चले हम 

नादां तेरे शहर को..

-Little_Star


यह कविता एक मां के दर्द और उसके बेटे के बदलते व्यवहार की भावनात्मक कहानी को दर्शाती है। मां ने बेटे को बचपन से संवारा, उसे सही राह दिखाई और जीवन के मूल्यों का पाठ पढ़ाया। लेकिन समय के साथ, बेटा अपनी मां से दूर हो गया, और मां के दिल में एक गहरा खालीपन और दर्द रह गया। वह अपने बेटे के शहर से लौटते हुए अपने भावनात्मक संघर्ष को व्यक्त करती है, जहां वह खुद को वीरान और अकेला महसूस करती है। यह कविता रिश्तों की अहमियत और मां के अटूट प्रेम की भावुक अभिव्यक्ति है।





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