शाद अब्बासी (एक शख्सियत) भाग 2

ज़मीं ने मुझ को अकेला कभी नहीं छोड़ा 
फलक ने साथ निभाया कभी नहीं छोड़ा 
हमेशा रहती है नज़रें मेरे तआकुब में 
ज़माने ने मुझे तन्हा कभी छोड़ा

(शाद अब्बासी की किताब बिखरे मोती पेज नं 156 से)



शाद अब्बासी भाग 1 में आप ने उनकी ज़िंदगी के बारे में मुख्तसर बातें पढ़ी। उसे कड़ी में आगे बढ़ते हुए हम शाद अब्बासी की ज़िन्दगी को गहराई से जानते हैं।

शाद अब्बासी का असली नाम अबुल कासिम है, तखल्लुस शाद और कल्मी नाम शाद अब्बासी है। इन का जन्म बनारस के मदनपुरा मुहल्ले में हुआ। 

बनारस ही की तरह मदनपुरा भी किसी तआरूफ का मोहताज नहीं है।

शाद अब्बासी के जन्म की तारीख और सन में इख्तेलाफ है। वह अपनी तारीख पैदाइश और सन को एक लेख में कुछ इस तरह लिखते हैं......

"और हिंदुस्तान से अंग्रेज़ी हुकूमत का सूरज मगरिब की जानिक सियाह चादर में अपना मुंह छुपाने के लिए मजबूर हो चुका था। और अन्करीब थका हारा सूरज फलके हिंद से हमेशा हमेशा के लिए कूच की तैयारी कर रहा था। उन्हीं दिनों 29 अक्टूबर 1939 को मैं आलमे वजूद में आया"।
 
और यही तारीख उनके दफ्तरी रिकॉर्ड में भी मौजूद है।
मगर उन्होंने अपने जन्म की तारीख से मुतअल्लिक कुछ ज़रूरी बातें अपनी किताब " बिखरे मोती" में कुछ इस तरह लिखा है।

"मेरी तारीख पैदाइश मुख्तलिफ जगहों पर गलती से मुख्तलिफ तारीखों के साथ दर्ज हो गई है। वेटर लिस्ट और महा पालिका में तो यह गलतियां आम हैं। मगर मेरी किताबों में भी यह गलती सरज़द हो गई। उन दिनों मेरे वालिद साहेब की डायरी मुझे दस्तियाब हो गई, जिस में मेरी तारीख पैदाइश दर्ज है। उस हिसाब से मेरी सही तारीख पैदाइश 16 सितम्बर 1937 ईस्वी है"। 

इन दोनों बातों को देखते हुए कहा जा सकता है कि शाद अब्बासी की तारीख पैदाइश 16 सितम्बर 1937 ईसवी रही है।

इन के वालिद का नाम हाफिज़ मुहम्मद अब्बास है। जो हाजी मुहम्मद इस्माइल के बेटे हैं। 

शाद अब्बासी के वालिद हाफिज़ मुहम्मद अब्बास मुश्फिक चेहरे और धीमी आवाज़ में अपनी बात कहने वाले एक नेक दिल और खुशमिज़ाज इंसान थे। 

हक और सच बात को बहुत ही जामय अल्फाज़ और धीमी आवाज़ में कहने वाले हाफिज़ अब्बास साहेब ने यह साबित कर दिया था कि अपनी बात सही साबित करने के लिए आवाज़ ऊंची करने से कहीं बेहतर है कि आप सही हों।

हाफ़िज़ अब्बास साहेब ने घर में बच्चों को दीनदारी, ईमानदारी और अच्छी तालीम व तरबीयत के साथ बेहतर माहौल भी दिया। जिस के बिना पर आज उनका परिवार अच्छे इखलाक और हुस्न सुलूक के लिए जाना जाता है।

हाफिज़ अब्बास पारिवारिक होने के साथ ही एक सामाजिक शख्सियत के हामिल इंसान थे। जामिया सल्फिया रेवड़ी तालाब बनारस के बनने में उनका भरपूर योगदान रहा है। जामिया सल्फिया के नाज़िमे आला हाफिज़ अब्बास साहेब को अपना दायां बाज़ू कहते थे।

बड़े-बड़े मौलवी और मौलाना से उनके ताल्लुकात थे। और अक्सर इन बड़ी शख्सियतों की मेहमान नवाजी का शरफ भी हासिल करते थे। यह हमेशा मेहमान की बरकत से मालामाल रहे। कुछ दिन हो जाता और कोई मेहमान ना आता तो इन को फिक्र हो जाती कि क्या है कि हमारे घर में मेहमान जैसी बरकत क्यों नहीं आ रही। और जब मेहमान आ जाते तो वह अल्लाह का शुक्र अदा करते। और खुश होते।

शाद अब्बासी ने भी मेहमान नवाज़ी के उस माहौल को बाकी रखा। जिसे उनके वालिद ने हमेशा रहमत समझा था।

कुछ लोगों को छोड़ दें तो हम कह सकते हैं कि आज मेहमान रहमत ना हो कर एक बोझ हो गया है। जिसे कोई भी ढोना नहीं चाहता है।

शाद अब्बासी की वालिदा खातून बीबी की बात की जाए तो वह एक घरेलू, नेक और सच्ची खातून थी। मुहब्बत, खिदमत और शुक्र गुज़ारी इनकी ज़िंदगी का हिस्सा था। वह पढ़ी-लिखी नहीं थी। लेकिन वह एक समझदार खातून थी। जिस समझदारी सूझबूझ और दानाई से उन्होंने परिवार और बच्चों की परवरिश की वह काबिले तारीफ है। उनके अंदर तालीम की रौशनी भले ना थी। मगर ज़िहानत और दूरअंदेशी से मुकम्मल मालामाल थी। हर एक चीज़ हर एक बात को वह बहुत गहराई से सोचती, समझतीं और अमल करतीं थी।

उनके बच्चों में अपनी मां का अन्सर साफ दिखाई देता है। 
उनका पूरा परिवार अपने इख्लाक, शराफत और मेहमान नवाज़ी के लिए मशहूर है।

शाद अब्बासी पांच भाईयों में दूसरे नम्बर पर है। शाद अब्बासी की छ: बहने हैं।

शाद अब्बासी का भाइयों में हमेशा मिल्लत और इत्तेफाक रहा।

शाद अब्बासी बहनों का हक बखूबी समझते हैं। बहनों से मुहब्बत और उन की ज़रूरतों का हमेशा ख्याल रखते थे। और आज तक रख रहे हैं। बहनों से मिलना, उनका हाल-चाल जानना, तीज-त्योहारों पर सेंवई और मीठा नमकीन के साथ सीज़न का फल और खास मौकों पर उनका जो हक है। उसको कभी नहीं भूलते।

मां-बाप की इज़्ज़त और ऐहतराम हमेशा उनके दिल में रहा।
शाद अब्बासी अपने भाई-बहनों के लिए हमेशा मुखलिस रहे।
उन्हें भी भाई-बहन का हमेशा प्यार और सम्मान मिलता रहा।

उनकी बहन से जब उनके बारे में पूछा तो अपने दादा(शाद अब्बासी) के बारे में बताते हुए पहले तो उनकी आंखें भाई की मुहब्बत में अश्कबार हो गईं। और फिर मुस्काते हुए कहती हैं कि "उनके दादा बहुत अच्छे और नेक दिल इंसान हैं। हम बहनों को बहुत मानते और समझते हैं। हमारे सुख और दुख में हमेशा वह हमारे साथ रहे। हमारे दादा(शाद अब्बासी) आज बूढ़े हो गये हैं। मगर बहनों का हक और मुहब्बत आज भी उन्हें याद है"। 

वह आगे बताते हुए कहती हैं कि "अम्मा जब बीमार हुई तो दादा(शाद अब्बासी) खुद मोसम्मी लाते, और खुद ही उसका जूस निकालते और अपने हाथों से अम्मा को पिलाते थे"। 

शायद मुहब्बत इसी को कहते हैं। वरना आज हम लोग अपने मां-बाप को खाना कपड़ा और दवा देकर समझते हैं कि हम ने हक अदा कर दिया। मां-बाप से मिलने उनके पास दो पल बैठने और उनके दर्द जानने की फुर्सत कहां। 

अपने लहू से खुशियां उगाने का नाम मां है
बच्चों को अपना जिस्म ओड़ाने का नाम मां है 
तूफां को रोक देती है जो हर सितम को सह कर
दुनिया की कश्ती आगे बढ़ाने का नाम मां है
-शाद अब्बासी 

इन सब बातों से हम कह सकते हैं कि शाद अब्बासी ने अपने खानदान की दीनदारी, अपने मां-बाप की तालीम को हमेशा अपना फख्र जाना। और उन्हीं रास्तों पर चलते रहे।

शाद अब्बासी अपने एक मज़मून में अपने खानदानी पस-मंज़र का तज़किरा करते हुए लिखते हैं......

"मेरे दादा हाजी मुहम्मद इस्माइल के वालिद का नाम लाल मुहम्मद था। जो लाल मुहम्मद सरदार के नाम से मशहूर थे। उन दिनों बावनी पंचायत के राज में हर मुहल्ले के कुछ ज़िम्मेदार को अपने-अपने मुहल्ले की निगरानी सौंप दी जाती थी। बावनी पंचायत का सदर हर जगह शिरकत नहीं कर सकता था। या दूर-दराज़ इलाके में मआमलात की तफ्तीश और फैसले सुनाने के लिए मुआविन की ज़रूरत पड़ती थी। वह इसी ज़िम्मेदारी को निभाने की वजह से सरदार के नाम से मशहूर हुए। लेकिन बाद में मेरा खानदान "लाल बाबा" के नाम से मशहूर हुआ। लाल मुहम्मद तो खुशहाल आदमी थे। लेकिन दादी ने बताया कि तुम्हारे दादा यानी हाजी मुहम्मद इस्माइल के ज़माने में हम लोग गुरबत और मुश्किलात की वादी से गुज़र रहे थे। मेरे दादा के दो भाई थे। उन के छोटे भाई हाजी अब्दुल लतीफ, लाल लतीफ के नाम से मशहूर हुए। मेरे वालिद के तीन भाई थे। उन लोगों की पैदाइश मुहल्ला गोल चबूतरा की थी। (गोल चबूतरा मदनपूरा में वाकए है) जहां उनका आबाई मकान था। मेरे वालिद हाफिज़ मुहम्मद अब्बास साहेब तीनों भाइयों में सबसे छोटे थे"।

शाद अब्बासी जब छः साल के हुए तो उनका दाखिला मदरसा जामिया रहमानिया मदन पूरा में कराया गया। जहां उन्होंने कुरआन शरीफ कारी अहमद सईद से, फारसी, उर्दू मौलवी अबुल खैर फारूकी से, गणित (हिसाब) और इतिहास (जुगराफिया) मास्टर अब्दुल हमीद साहेब जो कि ज़िला जौनपुर के रहने वाले थे, उनसे हासिल की।
शाद अब्बासी की बातों से पता चलता है कि उन्हें मेहनत और मुहब्बत करने वाले उस्ताद मिले। 

एक बेहतरीन उस्ताद हमेशा अपने शागिर्द के लिए एक इंआम होता है। एक बेहतरीन उस्ताद अपने शागिर्दों को ना सिर्फ बेहतर तालीम देता है। बल्कि उनकी बेहतरीन तरबीयत भी करता है।

शाद अब्बासी के उस्तादों ने भी उनकी सलाहियतों को उजागर करते हुए उनके अंदर मेहनत और लगन का जज़्बा भी पैदा कर दिया।

शाद अब्बासी अपनी कल की तालीम और आज की तालीम का मुआज़िना करते हुए लिखते हैं कि........

"इन नेक तबआ और मुखलिस शख्सियतों ने जिस खुलूस और मुहब्बत से मुझे दर्जा पांच तक तालीम दी। उस तनाज़ुर में आज के दर्जा पांच के बच्चों को देख कर हैरत होती है। उन दिनों दर्जा पांच में फारसी की किताब "गुलज़ारे दबिस्तां" पढ़ाई जाती थी, और आमद नामा की पूरी गरदान ज़ुबानी याद कराई जाती थी"।

ज़हीन और होनेहार तालिब इल्म होने के बावजूद शाद अब्बासी सिर्फ क्लास पांच तक ही पढ़ पाये। लेकिन दिल में इल्म हासिल करने का जज़्बा था। और इसी जज़्बे के तहत शाद अब्बासी ने मुंशी का इम्तिहान देने के इरादे से घर पर ही तैयारी शुरू कर दी।

खुद से तैयारी के साथ ही साथ शाद अब्बासी ने मास्टर अब्दुल रहमान को राज़ी कर लिया कि वह मंशी के इम्तिहान की तैयारी करा दें।
लेकिन अफसोस तैयारी के बावजूद शाद अब्बासी मुंशी के इम्तिहान ना दे सके। एक जगह शाद अब्बासी इम्तिहान ना देने की वजह बताते हुए लिखते हैं कि.......

"इम्तिहान ना देने की वजह यह हुई कि वालिद साहेब का कारोबार भाइयों से अलग हो गया था। साड़ियों पर पॉलिश का काम था‌। उस में आदमियों की ज़रूरत पड़ गई। मुझे पॉलिश के काम में लगना पड़ गया। हालांकि मैं बहुत छोटा था"‌।

शाद अब्बासी छोटे उम्र के ज़रूर थे। मगर उन में बचपना कम ही दिखाई देता था। घर में साड़ियों का काम होता था। मुलाज़िम के ना आने की सूरत में शाद अब्बासी को वह काम अंजाम देना पड़ता था। इसी वजह से उन्हें तालीम से दूर होना पड़ा। मगर तालीम हासिल करने की लगन दिल के किसी खाने में ज़िंदा था। इसे के पेशे नज़र शाद अब्बासी ने पॉलिश के काम के साथ-साथ प्राइवेट तालीम को जारी रखा।

राज़े हयात भी मेरे दस्त हुनर में हैं 

बीते दिनों के सारे मनाज़िर नज़र में हैं 

बचपन से दश्त शौक में गुज़री है ज़िंदगी 

कितनी कहानियां मेरे रख्ते सफर में हैं 

-शाद अब्बासी 

शाद अब्बासी अंग्रेज़ी सीखने के मकसद से एक बार फिर जामिया रहमानिया गये। जहां पर मौलवी फज़लूर रहमान से उन्होंने अंग्रेज़ी का कुछ ज्ञान लिया।

अंग्रेज़ी सीखने का नतीजा यह निकला कि उन्होंने प्राईवेट से अदीब और अदीब माहिर का उर्दू अलीगढ़ से इम्तिहान देकर कामयाबी हासिल की।
शाद अब्बासी ने अपने हौसलों से साबित कर दिया था कि अगर इंसान में कुछ करने का जज़्बा हो तो कितनी ही परेशानियां क्यों ना हो। आप की हिम्मत से मंज़िल मिल ही जाती है।

काटे ना कट रही थी हवा से दिये की लव

जलता रहा चिराग हवाओं में देर तक

-शाद अब्बासी 

अभी तो सफर की शुरुआत है। कहानी अभी बाकी है। शाद अब्बासी की शख्सियत के बहुत सारे पन्ने ऐसे हैं जिसे अभी हमें जानना है।

जारी है......





 

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