Shad Abbasi's Yadein
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अभी तो रोने का मौसम है मुस्कुराऊं क्या
मेरी हयात भी कागज़ की नाव जैसी है
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मेरी गज़ल में जो कुछ फिक्र व फन की खुशबू है
मेरा कमाल नहीं आप की मुहब्बत है
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काटे ना कट रही थी हवा से दिये की लव
जलता रहा चिराग हवाओं में देर तक
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हैं और भी फंकार यहां इल्म व अदब के
एक शाद ही इस शहर में बेकार नहीं है
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सम्भल के चल तेरा नक्शे कदम ही रहबर है
सम्भल के बोल यहीं से रिवाज बनता है
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सम्भल के रखना कदम ज़िंदगी की राहों में
तुम्हारे नक्शे कदम से समाज बनता है
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राज़े हयात भी मेरे दस्त हुनर में हैं
बीते दिनों के सारे मनाज़िर नज़र में हैं
बचपन से दश्त शौक में गुज़री है ज़िंदगी
कितनी कहानियां मेरे रख्ते सफर में हैं
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शाद अब्बासी लिखते हैं कि जब भी मेरी कोई किताब मंज़रे आम पर आई मैंने समझा शायद यह मेरी आखरी किताब हो, लेकिन हर बार बच-बच जाता हूं। इस की वजह भी थी कि किताबें उस वक्त तबअ होना शुरू हुई, जब मेरी ज़िन्दगी नसफ से ज़्यादा सफर कर चुकी थी। मंज़िल के आसार नुमाया हो रहे थे। हर कदम पर यही खदशा लगा रहता था कि ना जाने कब यह रास्ते खत्म हो जाएं। लेकिन ज़िंदगी का सफर अभी जारी है। अल्लाह का लाख-लाख शुक्र है कि उस ने अदबी इमारत की ईंट पर ईंट रखने की ताकत और हिम्मत दी।
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अपने बेटे डॉक्टर सलमान रागिब के बारे में शाद अब्बासी लिखते हैं.....
"मेरे बड़े बेटे डॉक्टर सलमान रागिब का 29 अक्टूबर 2019 बरोज़ मंगल दो बजे दिन इंतेकाल हुआ। इन्ना लिल्लाही वईन्ना इलैही राजिऊन, यह मेरे लिए एक ऐसा सानेहा था, जिस का अंदाज़ा सिर्फ मैं ही लगा सकता हूं। बेटे, भाई, बाप, मां तो सब के वफात पाते हैं। लेकिन एक ऐसा बेटा जो बाप की अदबी ज़िंदगी, अदबी तखलीकात को उजागर करने, अकादमीयों से तआवन के सिलसिले में मुआविन रहा हो। उस की मौत से शाहराहे ज़िंदगी पर ना उम्मीदी और मायूसी के काले बादल छा जाना मेरे लिए एक मौत का हुक्म है। उस की दो साल की अलालत के दौरान उस की सेहतयाबी की दुआएं करता रहा। अब उस की मौत के बाद आखरी सांस तक दूसरे बिछड़े हुऊं के साथ उस की मगफिरत की दुआएं करनी है। ऐसी औलाद की मौत को इंसान भूल सकता है, लेकिन उस की ज़िंदगी की सरगर्मियां, उसकी फरमां बरदारियां, उस की खिदमात, असा बन कर थर्राते हुए कदमें को तकवियत पहुंचाना, एक बाप कैसे भूल सकता है"।
छीन कर मेरे लब से दुआ ले गया
खींच कर जैसे कोई रिदा ले गया
जब बगावत मेरे पांव करने लगे
मेरे हाथों से कोई असा ले गया
-शाद अब्बासी
शाद अब्बासी लिखते हैं.....
"अब कुछ लिखने बैठता हूं तो कलम मुझ से पीछा छुड़ाना चाहता है। और कागज़ अपनी खस्ताहाली पर आंसू बहाने लगता है इस लिए कम्प्यूटर का सहारा लिया। जो अभी बिल्कुल ताज़ा दम है। मौदान जंग में ताज़ा दम सिपाहियों की तरह या फुटबॉल के मौदान में तबादले के तौर पर उतरे हुए नये खिलाड़ी की तरह। दूसरे यह कि कागज़ पर किताबत करते हुए कुछ गलत लिख गया तो उसे मिटाने में ही पसीने छूट जाते। और कम्प्यूटर पर कुछ गलत लिख गया तो हुक्म देने पर वह गलत लफ्ज़ फौरन अपनी जगह से गायब हो जाता है। इस लिए कम्प्यूटर से दोस्ती करनी पड़ी"।
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आज शोरा व अदब खामोश क्यों हैं, एक ज़माना था कि शोरा व अदबा ज़ुल्म के खिलाफ बेखौफ होकर आवाज़ बुलंद करते थे। हुकूमते वक्त की दुखती रग को दबा देना उन के लिए कोई मुश्किल काम ना था। वह बेखौफ, निडर होकर इज़हारे ख्याल कर दिया करते थे। यही नहीं बल्कि वज़ीर ए आज़म के मुंह पर उस के फैसले पर नुक्ता चीनीयां
कर देते थे। उस के नतीजे में कभी-कभी उसे सलाखों के पीछे भी जाना पड़ता था। लेकिन वह हज़ारों में कोई एक होता।
लेकिन आज का शायर व अदीब सियासत के डगर पर पड़े हुए रोड़े की तरफ भी इसारा नहीं कर सकता कि यह गलत है। वह अपना मुंह बंद रखने में ही आफियत समझता है।
मैं यह जो बातें कर रहा हूं, वह किसी एक मुल्क या इलाके की नहीं बल्कि आज सारी दुनिया में खवा वह मुस्लिम मुमालिक हों या गैर मुस्लिम मुल्क, हर जगर आवाज़ बुलंद करने वालों के मुंह पर ताले लगा दिये गये हैं। या उस की आवाज़ की कोई अहमियत ही बाकी नहीं रह गई है"।
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