शाद अब्बासी (एक शख्सियत) भाग 7

राज़े हयात भी मेरे दस्त हुनर में हैं 

बीते दिनों के सारे मनाज़िर नज़र में हैं

बचपन से दश्त शौक में गुज़री है ज़िंदगी 

कितनी कहानियां मेरे रख्ते सफर में हैं 

शाद अब्बासी 



जैसा कि आप ने पढ़ा कि शाद अब्बासी को बचपन से ही तालीम का शौक था। इल्म हासिल करने के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की।

लिखने और पढ़ने की आदत और  शौक ने शाद अब्बासी को एक बार फिर 72 साल की उम्र में आला डिग्री के लिए मजबूर किया।

शाद अब्बासी ने  मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी से 2011 में 74 साल की उम्र में उर्दू से बी-ए पास किया। इस तरह उनका तालीमी सफर आगे बढ़ा। और फिर उन्होंने पोस्ट ग्रेजुएट का इम्तिहान दिया, और कामयाबी हासिल करते हैं।

शाद अब्बासी ने इस उम्र में तालीम हासिल करके यह साबित कर दिया कि पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती है। सिर्फ इंसान में शौक और हौसला होना चाहिए। 

इसी के साथ शाद अब्बासी आगे बढ़ते वक्त और हालात के बदलते तेवर और तकनीक की उड़ती उड़ान के साथ वह आगे बढ़ते रहे। कभी कलम से लिखने वाले शाद अब्बासी ने कम्प्यूटर को अपना राहगीर बना दिया। जो उनके इशारे पर उनके साथ चलने लगा। इसी सिलसिले में शाद अब्बासी लिखते हैं.....

"अब कुछ लिखने बैठता हूं तो कलम मुझ से पीछा छुड़ाना चाहता है। और कागज़ अपनी खस्ताहाली पर आंसू बहाने लगता है इस लिए कम्प्यूटर का सहारा लिया। जो अभी बिल्कुल ताज़ा दम है। मौदान जंग में ताज़ा दम सिपाहियों की तरह या फुटबॉल के मौदान में तबादले के तौर पर उतरे हुए नये खिलाड़ी की तरह। दूसरे यह कि कागज़ पर किताबत करते हुए कुछ गलत लिख गया तो उसे मिटाने में ही पसीने छूट जाते। और कम्प्यूटर पर कुछ गलत लिख गया तो हुक्म देने पर वह गलत लफ्ज़ फौरन अपनी जगह से गायब हो जाता है। इस लिए कम्प्यूटर से दोस्ती करनी पड़ी"।

शाद अब्बासी ने अपने हौसले से एक मिसाल कायम की है। जो आने वाली नस्लों के लिए एक सबक है।

शाद अब्बासी की पूरी ज़िंदगी हम सब के लिए एक मिसाल है। शाद अब्बासी ने अपने मिज़ाज और अंदाज़ से अपना एक अलग मुकाम बनाया। बाहैसियत इंसान शाद अब्बासी में वह तमाम खूबियां मौजूद हैं, जो एक अच्छे इंसान में होनी चाहिए। वह एक हमदर्द मुखलिस, इंसाफ पसंद, साफ गो, संजीदा मिज़ाज हैं। कहते हैं ज़ाहिर का असर बातिन पर और बातिन का असर ज़ाहिर पर पड़ता है। शाद अब्बासी की शख्सियत से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि शाद अब्बासी खूबसूरत हैं। वह एक सच्चे और रहमदिल और  हमदर्द इंसान हैं।

शाद अब्बासी को रिश्तों का लिहाज़, गमी और खुशी में सब का साथ देने वाले। बड़ो का ऐहतराम, पड़ोसी की मदद ऐसे बहुत सारे काम हैं जिसे करके उनको खुशी मिलती है।

  मैं अहले इल्म की उल्फत ना भूल पाऊंगा

यह हम नशीनी, रिफाकत ना भूल पाऊंगा 

मैं एक ज़र्रा हूं, सूरज के उन उजालो से

मिली है मुझ को जो इज़्ज़त ना भूल पाऊंगा।

(शाद अब्बासी की किताब बिखरे मोती पेज नंबर 191)

शाद अब्बासी के हौसले और हिम्मत की दाद देनी होगी कि आज ज़ईफी के बावजूद वह उर्दू और उर्दू के फरोग के लिए काम कर रहे हैं।


और अपनी उन कोशिशों को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने एक सह माही रिसाला "इरतेका" बनारस के नाम अपनी इदारत में प्रकाशित कर रहे हैं।

पहली बार यह रिसाला जनवरी 2016 में प्रकाशित हुआ। जिस का सिलसिला आज तक जारी है ‌इस रिसाले की खासियत यह है कि यह खालिस अदबी है।

लेकिन एक जगह शाद अब्बासी लिखते हैं.....

"इरतेका एक अदबी मैगज़ीन है। लेकिन मेरी ख्वाहिश यह है कि इस में आसान ज़ुबान में मुआशरती, समाजी, वाकिआती मज़ामीन भी शामिल होते रहें, ताकि दिलचस्पी के साथ हमारी आने वाली नस्ल का रिश्ता इस से इस्तेवार रहे"।

शाद अब्बासी उर्दू के फरोग के लिए हमेशा फिक्र मंद रहे।

अहले ज़ुबां के घर की ज़ुबानें भी बिक गईं 

हुरफो की शक्ल बदली तो लफ्ज़ भी बिक गईं 

बेकार चीज़े रखती नहीं मेरी नस्ल भी

रद्दी के भाव उर्दू किताबें भी बिक गईं 

(शाद अब्बासी की किताब बिखरे मोती पेज नं 145)

शाद अब्बासी एक जगह लिखते हैं.....

"किसी ज़माने में उर्दू एक ऐसी ज़ुबान थी, जिसे हर मज़हब के लोग अपने इल्मी इज़हार के लिए इस्तेमाल किया करते थे। लेकिन वह वक्त अब गुज़र चुका है। फिर भी इस बची हुई कश्त-वीरां को हम होशमंदी से सैराब करते रहें तो ज़रूर बार-आवर हो सकती है"। 

उर्दू और इल्म व अदब की फिक्र शाद अब्बासी को बेचैन किए रहती। जिसका ज़िक्र वह अक्सर अपने किताबों में करते रहे हैं।

शाद अब्बासी एक किताब में लिखते हैं.......

"आज शोरा व अदब खामोश क्यों हैं, एक ज़माना था कि शोरा व अदबा ज़ुल्म के खिलाफ बेखौफ होकर आवाज़ बुलंद करते थे। हुकूमते वक्त की दुखती रग को दबा देना उन के लिए कोई मुश्किल काम ना था। वह बेखौफ, निडर होकर इज़हारे ख्याल कर दिया करते थे। यही नहीं बल्कि वज़ीर-ए-आज़म के मुंह पर उस के फैसले पर नुक्ता चीनीयां कर देते थे। उस के नतीजे में कभी-कभी उसे सलाखों के पीछे भी जाना पड़ता था। लेकिन वह हज़ारों में कोई एक होता।

लेकिन आज का शायर व अदीब सियासत के डगर पर पड़े हुए रोड़े की तरफ भी इसारा नहीं कर सकता कि यह गलत है। वह अपना मुंह बंद रखने में ही आफियत समझता है।

मैं यह जो बातें कर रहा हूं, वह किसी एक मुल्क या इलाके की नहीं बल्कि आज सारी दुनिया में ख्वाह वह मुस्लिम मुमालिक हों या गैर मुस्लिम मुल्क, हर जगर आवाज़ बुलंद करने वालों के मुंह पर ताले लगा दिये गये हैं। या उस की आवाज़ की कोई अहमियत ही बाकी नहीं रह गई है"।

एक और जगह पर लिखते हैं.....

"हम उर्दू वाले अपने बुजुर्गों के कारनामे को अपनी औलादों के ज़हनों में सिर्फ उर्दू ज़ुबान के ज़रिये मुन्तक़िल कर रहे हैं। और इसी पर मुत्मइन हो जाते हैं। मोरख बददियानती कर सकता है। लेकिन तारीख बददियानती नहीं करती, यह हमेशा अपने अंदर सच्चाई को छिपाये रखती है। ज़रूरत इस बात की है कि हम तारीख के अवराक से उन पोशीदा मोतियों को चुन कर देश की दूसरी मरूजा जुबानों के सफहात पर बिखेर दें। जिन को मज़हबी बुनियाद पर नज़र अंदाज़ किया जा रहा है।, ताकि हमारे इसलाफ के कारनामे हम तक महदूद होकर ना रह जाए। बल्कि उन लोगों के कानों तक भी पहुंच जाएं जो सुनने की सलाहियत नहीं रखते सिर्फ बोलना जानते हैं"।

शाद अब्बासी की बातों से पता चलता है कि उर्दू के साथ-साथ अपने बुजुर्केगो के कारनामों को दुनिया के सामने लाने के लिए बेचैन रहते हैं। और उसको किस तरह दुनिया के सामने लाया जाए उस पर भी गौर व फिक्र करते रहते हैं। 

उम्र के इस पड़ाव पर जहां इंसान हिम्मत हार जाता है। वहीं शाद अब्बासी एक मिसाल है। जो ज़िंदगी के हर मोड़ पर हौसला रखते हुए अपनी ज़िंदगी जीने के साथ-साथ ऊर्दू के बेहतर मुस्तकबिल के लिए हमेशा कोशा रहते हैं।

शाद अब्बासी की किताब "मदनपूरा की अंसारी बिरादरी" जिसमें मदनपूरा के बिरादराना निज़ाम, रिश्ते नाते में बराबरी का लिहाज़, शादी व गमी, मेले, त्योहार से लेकर और पोशाक तक का ज़िक्र है।

चुप हैं यह तहरीरें लेकिन इक दिन तो लब खोलेंगी 

आने वाली नस्लें अपने पुरखों को जब ढूंढ़ेंगी 

-शाद अब्बासी 

शाद अब्बासी की इस किताब पर तबसिरा करते हुए मुफ्ती अबुल कासिम साहेब नोमानी लिखते हैं.....

"मोहतरम शाद अब्बासी की किताब मदनपूरा की अंसारी बिरादरी इस लिहाज़ से एक दस्तावेज़ी किताब है कि मदनपूरा के जो रस्म व रिवाज और तहज़ीबी आसार नेज़ आदात व अतवार अब तक सिर्फ मुशाहिदा व ऐहसास या ज़ुबानी नकल व रवायात तक महदूद थे, वह इस किताब के जरिए ज़बत तहरीर में आ गए हैं। और यूं महसूस होता है। मैंने यह जाना कि गोया यह मेरे दिल में है"। 

शाद अब्बासी की इस किताब पर प्रोफेसर मुहम्मद तहा साहेब लिखते हैं कि.....

"अबुल कासिम शाद अब्बासी की तसतीफ मदनपूरा की अंसारी बिरादरी (समाजी पसमंज़र) मदन पुरा के बुनकर बिरादरी की समाजी ज़िंदगी की एक बेहतर अक्कासी करती है। ना सिर्फ मदनपूरा के बाशिंदों का तारीखी पसमंज़र पेश करती है, बल्कि बारादराना निज़ामे ज़िंदगी की सभी रसूमात, मज़हबी तौर-तरीके, त्योहार, पोशाक व आदाब ज़िंदगी का एक मुकम्मल दस्तावेज करार दिया गया है"।

इन सब बातों से पता चलता है कि मदनपूरा की अंसारी बिरादरी एक अहम दस्तावेज की हैसियत रखती है।

 इसी तरह शाद अब्बासी की किताब उनकी शायरी उनकी  शख्सियत के बारे में अक्सर पढ़ने को मिल जाता है। जो कि समाज के बहुत ही मुअज़्ज़ि दानिश्वर शख्सियत ने कहे हैं।

इसी सिलसिले में हम जनाब प्रोफेसर आफताब अहमद आफाकी साहेब,( बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी डिपार्टमेंट आफ उर्दू) के वह शब्द जानते हैं जो उन्होंने शाद अब्बासी के इल्म व अदब, किताब और अशआर के लिए लिखे हैं......

"बनारस के मौजूदा अदबी मंज़र नामे पर जिन शोरा व अदबा के दस्तखत हैं उन में शाद अब्बासी मेरे नज़दीक इस ऐतबार से मोहतरम हैं कि उन्होंने महज़ शायरी को इज़हार का जरिया नहीं बनाया, बल्कि अपने ऐहसास व फिक्र की तरजुमानी के लिए नसर को भी वसीला बनाया है। मौसूफ की मुताअद्दिद शएरी व नसरी तसानीफ इस बात की गवाह है कि उर्दू ज़बान व अदब से इनका रिश्ता गहरा और मुखलिसाना है।

शाद ने गज़लों, नज़्मों के इलावा कतआत भी खलक किये हैं। इन की कुछ गज़लों में ज़िंदगी का करब, इंतेशार व इखतेलाल, तल्खियों और ज़हदनाकियों, जबर व सितम हालात व हवादिस की तस्वीर बा आसानी देखी जा सकती है। इन अशआर में गहरे तजरबात और मुशाहेदात नज़र आते हैं। यह भी दुरुस्त है कि रिवायती और रस्मी अंदाज़ की शायरी में ऐसे बहुत से मौज़ूआत मिलते हैं। जिन से फंकार का अपने तौर से कोई ताल्लुक नहीं होता, लेकिन कदरे गौर से देखा जाए तो मालूम होगा कि शायर ने यह अशआर यूं ही नहीं कहे, बल्कि यह एहसास उसे कहीं बेचैन करता है, कहीं तवानाई अता करता है। और कभी ख्यालों की दुनिया में ज़िंदगी के कसैले पन को दूर करके जीने का हौसला बख्शता है"।

हर वक्त फिक्र रहती है ऐ शाद बस यही

इसलाफ की ज़ुबान की लज़्ज़त ना हार जाऊं 

-शाद अब्बासी 

आली जनाब सय्यद हसन अब्बास साहेब (सदर शोबा फारसी, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी) की कुछ बातें यहां पर लिखी जा रही हैं। 

सय्यद हसन अब्बास साहेब लिखते हैं......

"शाद अब्बासी की शायरी में हर किस्म के मौज़ूआत ज़ेरे बहस आये हैं। इस से अंदाज़ा हो सकता है कि वह अपने इर्द गिर्द के हालात पर गहरी नज़र रखने के साथ-साथ रवायात व अकदार की पासदारी बल्कि अमलदारी की तरगीब देते नज़र आते हैं। एक अच्छे शायर की जो खूबियां हो सकती हैं, वह इन में पाई जाती हैं। उन्होंने कदीम व जदीद के दरमियान मोतदिल व मुतावाज़िन रिश्ता कायम रखा है। इन के कलाम में सादगी और सफाई के अनासिर ब दर्जे अतम मौजूद हैं। आम फहम अंदाज़ में कलाम करने का उनका मखसूस अंदाज़ है जो उन की शायरी में जलवा गर है। असरी हैसियत से भरपूर शायरी के चंद नमूने मुलाहेज़ा फरमाइए और शाद अब्बासी के शायराना कलाम की दाद दीजिए"।

हिफाज़त आप कीजिए खुद अपने जान व माल की

लिखा है आप के नगर में बस यही जगह-जगह 

वह कैसे अब मिटाएगा सबूत अपने ज़ुल्म का

दमक उठे मेरे लहू की रौशनी जगह-जगह 

उजाला हो सका ना दिल में जज़्बये खुलूस का

चिराग खुद नुमाई की है रौशनी जगह-जगह 

-शाद अब्बासी 

जैसा कि हम ने पढ़ा कि शाद अब्बासी के लिए नामवर हस्तियों ने अपने इज़हारे ख्यालात ज़ाहिर किये। इसी सिलसिले में आगे बढ़ते हुए हम और भी शख्सियत के अल्फाज़ पढ़ेंगे जो कि शाद अब्बासी के लिए कहे गये हैं।  जो कि भाग 8 में दर्ज है।

जारी है......

शाद अब्बासी (एक शख्सियत) भाग 8




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