बूढ़ा बचपन | भाग 1 |
बूढ़ा बचपन.....
(अक्सर हमारे आस-पास कुछ ऐसी बातें हो जाती हैं जिनको हम सुनते तो हैं। मगर उन पर ध्यान नहीं देते हैं। मगर वक्त के साथ वह बातें हमारे ज़ेहन (मन) में कहीं ना कहीं रहती हैं। उन्हीं बातों में एक बात जो हम अक्सर सुनते हैं। वह है बुज़ुर्ग (बूढ़े) लोगो की आदतें और व्यवहार कि कैसे वह बचपने वाला काम बुढ़ापे में कर रहे हैं। और बुज़ुर्ग लोगों की उन बचपने वाली आदत और व्यवहार से कुछ लोगों को बड़ी तकलीफ़ होती है ।और गुस्सा भी करते है।
किसी बुजुर्ग की बचपनी आदत और व्यवहार से अगर गैरों को तकलीफ़ होती है तो हम सोच लेते हैं की वह तो गैर हैं। वह क्या समझेंगे। लेकिन अगर बुज़ुर्ग के व्यवहार से घर वालों को ही तकलीफ़ और परेशानी हो तो यह सब से तकलीफ़देह बात हो जाती है।
इन्हीं बातों के मद्देनज़र यह लेख लिखा है। जिसका उनवान (टाईटल) है, "बूढ़ा बचपन"
एक बार ज़रूर पढ़ें। और अपनी राय, सुझाव और प्रतिक्रिया कमेंट में ज़रूर लिखें। जिससे कि हम सब समझ सकें उस बूढ़े बचपन को जो बोझ बनता जा रहा है। वह बोझ जो कि हकीकत में एक नेअमत है।
शब्दों की वर्णमाला सजी है। लफ्ज़ो का बेतरतीब रेला मन की गलियों में आ जा रहा है। कभी किताबों में पढ़ी हुई कहानियां आज हकीकत का रूप लिये हमारे इर्द-गिर्द दिखाई और सुनाई देती हैं। रिश्तों की वह डोर जिसे हम बचपन में ना समझते हुए सिर्फ उन्हें महसूस करते हुए उनसे बंधे रहते थे। उन रिश्तों की डोर से बंधे रहना हमारी ज़रूरत थी या मज़बूरी यह हम बचपन में तो नहीं सोच पाते, लेकिन फिर भी हम उन रिश्तों से बंधे रहते थे। और उन रिश्तों से बंधे रहना हमें अच्छा लगता था।
फिर हमारी ज़िन्दगी में एक वक्त ऐसा आता है जब हम हर रिश्ते को बड़े अच्छे से समझते और उनको निभाते हैं।
ज़िन्दगी का चक्र, घड़ी की सूई, इंसानों की उम्र सब कुछ आगे बढ़ती रहती है। खुशियों का सावन, दुखों का पतझड़, आरज़ुओं का मेला, मिलन का सवेरा, जुदाई की रात सब कुछ गुज़रती रहती है। और हम सब एक तिंके के मानिंद पानी के बहाव के साथ बहते चले जाते हैं।
और फिर जब पानी का बहाव धीमा होते हुए बहुत धीमा हो जाता है और वह बहता हुआ तिनका ठहर जाता है।
ठहर जाता है वह तिनका आंखों में कुछ तस्वीरें, बेहिसाब बातें, सिसकती यादें, खुशियों के पल, आरज़ु पूरी ना होने का दुख, सपनों के पा लेने का सुरुर, कुछ खामियां, कुछ सलीके लिए वह तिनका अपने उस ठहरे हुए वजूद को समेटते हुए ज़िन्दगी की एक नई शुरुआत करता है।
और वह होता है उसका दूसरा बचपन। "बूढ़ा बचपन"
बूढ़ा बचपन ज़िन्दगी के तजुर्बों से लबरेज़ एक ऐसा बचपन जिसे बुढ़ापा कहते हैं।
बुढ़ापा किसी एक इंसान को नहीं बल्कि हर उस जानदार को आयेगा। जिसने जन्म लिया है। लेकिन यह बात हमें तब समझ आती है जब हम खुद बूढ़े हो जाते हैं। अपने बुढ़ापे से पहले अक्सर बहुत सारे लोग इसको समझ नहीं पाते।
बूढ़ापा एक अवस्था है। लेकिन हमने इसे रोग बना दिया है।
बुढ़ापा एक दुआ है। जो एक सज़ा बन गया है।
हम एक बूढ़े इंसान को सम्मान भले ही दे दें। लेकिन बूढ़े मां-बाप का तिरस्कार करना आम बात हो गई है।
हमारे पास अपने बच्चों को मनाने का हुनर तो होता है लेकिन अपने मां बाप को मनाने का सलीका हम नहीं सीख पाते।
जारी है.......
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