हया |
वह जो घूंघट में सदा, खामोश थी बिल्कुल हया
उठ गया घूंघट जो अब, बेहया मशहूर वह....
हया.....
हया जो झलके सदा ही तुझ में
खामोश हो लब और नज़र हो नीची
ढंका हो सिर और अदब हो जिसमें
ना आवाज़ ऊंची ना हो लब कुशां ही
सवाल हो ना वहां पे कोई
जवाब देने की क्या बात फिर हो
करे वह सब काम कुछ ऐसे जैसे
कोई मशीन हो या हो वह रोबोट
ना दर्द हो उसको थके कभी ना
वह बाते सबकी सुने है हरदम
सुनाये अपने कभी ना वह जो
क्या सुबह हो और होती क्या रात
मुहब्बतों को कहां वह पाती
जिस्म को अपने कहां बचाती
जो रूह से मिलती कभी तो रूह भी
ख्वाब अकसर यही वह बुनती
सबक वह जो पढ़ा है उसने
सही है सब कुछ गलत नहीं कुछ
तो फिर सही वह नहीं गलत वह
ना कोई सपना ना कोई ख्वाहिश
यही तो ख्वाहिश करें हैं सब ही
जिये तो लेकिन मगर ना अपनी
हो जैसे गिरवी कहीं रखी हो
हां होती ज़िदा मगर कुछ ऐसे
कोई वह बुत हो चले मगर जो
हज़ार दुख दर्द और ख्वाब लेकर
यहां जो जी ले वही है अच्छा
जो ज़िन्दगी को गुज़ारे ऐसे
खिताब उसको ना कोई मिलता
मगर जो खोले यहां कोई लब
जवाब दे दे सवाल कर ले
करे है जो बात सच और हक की
कहे है जो ना वही उसकी ना है
यह सच है हया है और गैरत है उसमें
मगर उसको मिलता खिताब ऐसे-ऐसे
बड़ी है बेगैरत बड़ी बेहया है
नहीं शर्म इसमें बड़ी बेशर्म है
बड़ी है यह दुनिया बड़े हैं यहां लोग
यह लोगों की दुनिया नहीं कोई इंसान
बने हम भी इंसान यही अब दुआ है
बनें हम ना अच्छे करें सब ही अच्छा
मगर ना बुरे हों ना कोई बुरा हो
-Little_Star
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