बचपन के सुहाने दिन – यादों के झरोखों से | Childhood's Golden Days – A Nostalgic Poem
मद्धम सी किरन वह एक
उन बन्द दरीचों से
आती है कभी छन कर
यादों के झरोखों में
सब याद जो आ जाए
महसूस सब हम करते
बचपन के सुहाने दिन
रिश्तों की सुहानी रात
अपने हैं सभी अपने
वह भाई बहन सब ही
खुशियों की रज़ाई ओड
सब मिल कर बैठे हैं
नफरत ना वहां कोई
शिकवा न शिकायत है
लड़ते तो वह हरदम हैं
लेकिन सब ज़ुबानी है
दिल में नहीं रंजिश
एक पल का झगड़ना वह
और फिर वह गले मिलना
बचपन की हर एक शोखी
और दिल वह उजला सा
कुछ भूल गये और हम
कुछ याद हमें है आज
रूठना नहीं हम भूले
लेकिन याद नहीं मनाना
होता है कहां ऐसा
हल्की सी हंसी वह और
आंखों का वह गीलापन
चमके हैं बहुत अक्सर
आंखों के सितारे वह
कहते हैं यही अब तो
हम लौट चलें वापस
कुछ भी ना हो गर वैसा
फिर भी हम वैसे बन जाएं
मिल कर फिर गले हम तुम
शिकवों को मिटा डालें
चमके फिर सितारा वह
खामोश जो बैठा है
-Little_Star
आनलाइन मैगजीन द्वारा दिया गया टाइटल "बचपन के सुहाने दिन" जिस पर लिखी गई यह कविता।
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