बूढ़ा बचपन | भाग 10 |

 



बूढ़ा बचपन.....

मुहब्बत भी क्या चीज़ है। यह कभी अपनों को गैर बना देती है। तो कभी गैरों को अपना बना देती है। जन्म देने वाली मां बुरी हो जाती है। ब्याह कर लाई हुई बीवी अच्छी हो जाती है। 

रिश्तों को निभाना हर एक को ज़रूरी होता है। घर परिवार एक स्टेज शो की तरह होता है। जहां हर किसी को अपना किरदार निभाना होता है। अगर हर कलाकार अपना किरदार अच्छे से निभा ले तो शो हिट हो जाता है। 

ज़िन्दगी के बेहतरीन दिनों को जीते हुए वह परिवार बहुत खुश था। शायद वहां कोई गम नहीं था। या फिर उस परिवार के लोगों को ज़िन्दगी जीने का सलीका पता था। 

कभी-कभी इंसान की समझ काम नहीं आती या फिर यूं कह लें कि किस्मत साथ नहीं देती। 

कहानी याद आती है......

खुशियों से भरे पूरे घर में उस वक्त अफसोस के नोहे गाये जाने लगे। जब घर में नई बहू के आते ही घर का माहौल बदलने लगा।

आप लोग दिन में दाल खाते हैं? हमारे घर में तो रात को दाल बनती है। 

आप लोग कितना मीठा खाते हैं। हमारे यहां कोई मीठा आ जाए तो पड़ा-पड़ा खराब हो जाता है। कोई खाता ही नहीं है। 

मुझे नाश्ते में अंडे खाना पसंद है। और आप के यहां तो रात का बचा हुआ खाना ही सब लोग सुबह भी खा लेते हैं। 

यह क्या आप लोग हर वक्त साथ बैठते हैं। 

कोई कुछ खाता है तो सब को देता है। अब मेरा कुछ खाने का मन हुआ तो मैं पहले पूरे घर में सब को खिलाऊं। 

यह सब बातें हर रोज़ पति को सुनने को मिल जाती। शुरू-शुरू की मुहब्बत, अच्छे बनने की चाह बीवी नाराज़ ना हो जाए। इन्हीं सब बातों के बीच एक लफ्ज़ "यह घर अब तुम्हारा घर है जैसे रहना है रहो" कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा। 

और फिर सिलसिला शुरू हो गया बुराई का। कभी सास को कुछ बुरा लगता तो कभी बहु को नागवार गुज़रता। 

सास बहू को कुछ काम सलीके से करने को कहे तो बुरा। ना कहे तो बुरा। क्योंकि कहे तो बहू नाराज़ कि हर वक्त काम काम और सिर्फ काम। ना कहो काम करने लिए तो बेटा नाराज़ की आप बहू को बता कर काम क्यों नहीं करवाती। 

यही सब होते-होते बुराई आ गई सब के दिल में। उम्र सब की बढ़ रही थी। सास हो गई बूढ़ी अब। बुराई का सिलसिला जारी, सास की तीमारदारी भारी। रोज़ की किचकिच। मां हो गई अब भारी उनके कामों को करना एक परेशानी। हर किसी की अपनी कहानी, हर किसी के अपने दुख। 

मज़बूर मां बिस्तर पर पड़ी है। कोई ठीक से देखने वाला नहीं। एक बोझ हो गई मां। बेटा कभी इनकी सुनता कभी उनकी सुनता। 

एक सही फैसला लेने वाला इंसान ना जाने कितना गलत फैसला ले लिया करता। मन उलझा रहता। एक तरफ मां दूसरी तरफ बीवी। बड़ी मुश्किल ज़िन्दगी हो गई उस की।

बेटा चाहता था मां को।

 मगर मजबूर हो गया। 

वक्त के हाथों।

एक मुहब्बत हार गया वह। 

एक मुहब्बत बचाते-बचाते।

बिस्तर पर पड़ी मां वह।

खामोश तमाशाई है 

जिस घर की हाकिम वह कभी थी।

 उस घर का एक बोझ अब है।  

कोई किसी को नहीं समझा सकता। जब तक करने वाले का दिल उस चीज़ के लिए तैयार ना हो जाए। हर ऐसे वक्त में एक बेटे की ज़िम्मेदारी है कि मां उसकी है। उसका सबकुछ उसे देखना है। तो फिर कोई कुछ नहीं कर सकता। मगर यह बात उतनी आसान नहीं। जितना कहने वाला कह रहा है इस वक्त।

क्योंकि वह जो कहते हैं ना "जिस घर की बात वही समझ सकता है"।


बूढ़ा बचपन भाग 1 

बूढ़ा बचपन भाग 3

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